द मीडिया टाइम्स
डेस्क: आरक्षण होना चाहिए या नहीं? इस प्रश्न पर लोगों के बीच अलग-अलग विचार हैं। कुछ बताते हैं की आरक्षण, आवश्यक है तो कईयों के अनुसार, आरक्षण, एक गलत प्रथा है। मैं यहां, यातायात वाले आरक्षण की बात नहीं कर रहा। यहां बात हो रही है, नौकरी और शिक्षा इत्यादि में, “जाति आधारित आरक्षण” की।
हिन्दू धर्म के अनुसार, चार वर्ण होते हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। अगर इतिहास में जाएं तो, पता चलता है की “ब्राह्मणों और ब्राह्मणवादी व्यवस्था” ने कितने बुरे तरह से “शूद्रों को प्रताड़ित किया” था। शूद्रों को, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण से भी प्रताड़ना झेलना पड़ता था। प्रताड़ित तो, वैश्य भी होते थें, क्षत्रिय और ब्रह्मण से। और, ब्राह्मणों ने क्षत्रियों को भी प्रताड़ित किया। अर्थात जिसको जहां, उंचा बनने का स्थान मिला, उसने अपने आप को उंचा माना और अपने से नीचों को प्रताड़ित किया। यहां पर यह भी बात ध्यान देने की आवश्यकता है की, मानवता के अनुसार कोई “ऊंचा-नीचा नहीं” होता है। लेकिन शूद्रों/दलितों ने सबसे अधिक प्रताड़ना झेली और अभी भी इनको प्रताड़ित किया जाता है।
यही सब प्रताड़ना के कारण, दलितों का आर्थिक और सामाजिक विकास नहीं हो पा रहा था। इसी सबको को ध्यान में रखते हुए, दलितों के एक भगवान और भारतीय संविधान के एक रचयिता “डॉ. भीमराव अम्बेडकर” और बाकी लोगों ने, संविधान में दलित आरक्षण को स्थान दिया। अर्थात, दलितों के लिए, नौकरी/शिक्षा इत्यादि में “सुरक्षित पद” जो सिर्फ दलितों को हीं मिलें ताकि इनलोगों का उत्थान हो ब्राह्मणवादी विचारधारा में ये लोग दबे ना रह जाएं। और इसी सब के आधार पर, आरक्षण का, बहुत सारे लोग समर्थन करते हैं। यह आरक्षण, दलितों के मार्ग से होते हुए, “अन्य पिछड़ा वर्ग” और “सवर्ण” तक आ पहुंचा है। यह सब “जाति-व्यवस्था” की देन है। आज, आरक्षण, “६५से८०प्रतिशत” तक पहुंच चुका है। यहां पर यह भी बताना आवश्यक है की, मानवता के अनुसार, कोई दलित, अन्य पिछड़ा वर्ग और सवर्ण नहीं होता – सब एक होते हैं।
जो लोग आरक्षण का विरोध करते हैं वो बताते हैं की, आरक्षण को हटा कर हीं “वास्तविक योग्यता” का चुनाव हो सकता है। अगर, योग्यता है तो, आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है। इनलोगों के अनुसार, आरक्षण, हमारे “समाज को विकलांग” बनाता है।
जहां तक, “राजनीति की बात” है तो, बाकी सभी आवश्यक विषयों की तरह, “आरक्षण का भी कोई साकारात्मक महत्व नहीं” है। आरक्षण भी, “मतदान का साधन” है। अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता। अगर आरक्षण देकर सरकार बन रहा है तो आरक्षण हटाने या “संशोधित”करने की बात तो दूर, आरक्षण को बढ़ा दिया जाता है।
अंत में मैं यही लिखूंगा की, आरक्षण नहीं होना चाहिए। बिलकुल नहीं होना चाहिए। ना तो धर्म के आधार पर, ना हीं जाती के आधार पर और ना हीं आर्थिक आधार पर। अगर, शूद्रों को प्रताड़ित किया गया तो, उन्हें लड़ना चाहिए था। और लड़ना चाहिए था। अपने आपको और आने वाले वंश को प्रताड़ित होने से बचाना चाहिए था ना की शोषित बता कर अपने आप को दुर्बल बताना चाहिए और वैशाखी का सहारा लेना चाहिए। तो क्या, इस आधार पर, इंग्लैंड, यूरोप और मुगल/मुस्लिम देशों में हिन्दू भी आरक्षण की मांग करें। अगर हिन्दू, इनसभी लोगों से प्रताड़ित हुए तो अपने आत्मसमर्पण के कारण।
एक बात और, प्रताड़ना तो मानसिक अवस्था है। जहां शूद्रों को अवसर मिलता है, वो भी आपस में हीं एक दूसरे को प्रताड़ित करते हैं।
“चमार, डोम के साथ अछूत” वाला व्यवहार करता है
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