सोमवार को तलाक पर आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला, एक अच्छा कदम है। किसी भी “कारण या मामले” में “पूर्ण न्याय” करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 142 (1) की “दिशा दिखाने वाली भावना” पर भरोसा करते हुए, एक संवैधानिक खंडपीठ ने कहा कि वह इस असाधारण विवेकाधीन शक्ति का इस्तेमाल, ऐसे फंसे हुए जोड़ों को आपसी सहमति से तलाक देने के लिए कर सकती है, जिनके विवाह में कड़वाहट आ गई हो। इसका उद्देश्य शादीशुदा जोड़ों को हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13 बी के तहत निर्धारित, किसी स्थानीय अदालत में छह से 18 महीने तक इंतजार करने की “पीड़ा और दुख” से बचाना है।
न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि तलाक का कानून, मुख्य रूप से गलती साबित करने पर आधारित है और यह टूटी हुई शादियों को संबोधित करने में नाकाम साबित हुआ है। पीठ ने कहा कि अगर किसी शादी में बेहतरी की कोई उम्मीद नहीं बची है, तो इस तथ्य को स्वीकार करना ही सार्वजनिक हित में है, न कि ‘विवाहित’ स्थिति को बनाए रखने में। न्यायालय ने कहा कि वह धारा 142 का इस्तेमाल, लंबित आपराधिक या कानूनी कार्यवाही को समाप्त करने के लिए कर सकती है।
वैवाहिक मामलों में अनुच्चेद 142 को लागू करने से पहले, सुप्रीम कोर्ट कई बातों पर विचार करेगी। इनमें विवाह की अवधि, मुकदमे की अवधि, जोड़े के अलग रहने की अवधि, लंबित मामलों की प्रकृति और सुलह की कोशिशें शामिल हैं। अदालत को यह सुनिश्चित करना होगा कि तलाक आपसी सहमति से हुआ है और इसमें किसी के साथ किसी भी तरह की जोर-जबरदस्ती नहीं की गई है। भारत में पिछले दो दशकों में तलाक की संख्या दोगुनी हो गई है, लेकिन फिर भी तलाक के मामले अभी 1.1 फीसदी ही है। इनमें शहरी क्षेत्रों की हिस्सेदारी बहुत बड़ी है।
हालांकि, तलाक के आंकड़े पूरी कहानी बयां नहीं करते। कई महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें बिना तलाक के ही छोड़ दिया गया है, खासकर गरीब तबकों में। वर्ष 2011 की जनगणना बताती है कि “अलग” रहने वाले जोड़ों की आबादी, तलाकशुदा लोगों की संख्या से लगभग तीन गुना ज्यादा है।
सभी शादियां खुशनुमा नहीं होतीं और सभी तलाक दुखी करने वाले नहीं होते।
जो लोग खटास भरी शादी से बाहर निकलना चाहते हैं, उनके लिए सोमवार को तलाक पर आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला, एक अच्छा कदम है।
भारत में पिछले दो दशकों में तलाक की संख्या दोगुनी हो गई है, लेकिन फिर भी तलाक के मामले अभी 1.1 फीसदी ही है। इनमें शहरी क्षेत्रों की हिस्सेदारी बहुत बड़ी है। हालांकि, तलाक के आंकड़े पूरी कहानी बयां नहीं करते। कई महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें बिना तलाक के ही छोड़ दिया गया है, खासकर गरीब तबकों में। वर्ष 2011 की जनगणना बताती है कि “अलग” रहने वाले जोड़ों की आबादी, तलाकशुदा लोगों की संख्या से लगभग तीन गुना ज्यादा है। गरीबों की बड़ी आबादी वाले ऐसे देश में जहां भीषण लैंगिक भेदभाव मौजूद है और ज्यादातर महिलाएं अभी भी आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हैं, अदालत द्वारा जल्दबाजी न करने और “सावधानी और सतर्कता” पर जोर दिए जाने का स्वागत किया जाना चाहिए। आखिरकार, विवाह में समान दर्जा हासिल होना सबके लिए हकीकत नहीं है।