द मीडिया टाइम्स
मोहित श्रीवास्तव
डेस्क: चिकित्सक इसलिए दुखी है या दुखी होने का ढ़ोंग किया जा रहा है क्यूंकि, एक चिकित्सक के साथ बलात्कार/अन्याय हुआ है। बाकी लोगों को इससे, लगभग, कोई अंतर नहीं पड़ता। चिकित्सा वाला यह बात “शिक्षा, कानून, पुलिस” इत्यादि में भी सटीक बैठता है।
किसी को किसी के दुख से कोई प्रभाव नहीं पड़ता, जबतक वो दुख, स्वयं या अपने परिवार से जुड़ा हो।
यहूदी, यहूदी को लेकर चिंतित है। मुस्लिम, मुस्लिम के लिए। ईसाई का चिंतन, ईसाईयत के प्रति है तो सिख-जैन-बौद्ध, अपने-अपने धर्म के लिए। हिन्दू, हिन्दुत्व के लिए। स्वार्थ, इतना बढ़ चुका है, लोग अब इसे हीं सामाजिकता और समर्थन को बेवकूफी के रूप में देखने लगे हैं। “स्वार्थ और अर्थ(मुद्रा)” हीं आज के समाज का वास्तविकता बन चुका है। ऐसे लोग, “वैज्ञानिक” रूप से जीवित तो दिखते हैं लेकिन “अध्यात्मिक/वास्तविक” रूप से मर चुके हैं। आज, यह समाज, “दोगलापन का पर्यायवाची” बन चुका है।
चिकित्सक, एक बलात्कार के प्रति चिंतित हैं और होना भी चाहिए। इसके लिए ये लोग, अलग-अलग प्रदर्शन भी कर रहे हैं। लेकिन फिर भी, एक ओर जहां यह प्रदर्शन चल रहा है वहीं दूसरी ओर, अलग-अलग स्थानों से और बलात्कार के समाचार आ रहे हैं। और इस बलात्कार में चिकित्सक भी हो सकते हैं।यह दयनीय है। निंदनीय है। बलात्कार का दंड, “लिंग काटना” होना चाहिए।
चिकित्सक और चिकित्सा का हड़ताल और इस हड़ताल को, चिकित्सकों के द्वारा, अपने “छुट्टी/मनोरंजन का दिन बनाना भी एक बहुत बड़ा दोगलापन का विषय है। शादीशुदा चिकित्सकों द्वारा “नर्स के साथ संभोग” का विषय भी समाज में छुपा नहीं है। यह सब, इस स्वार्थशास्त्र का निंदनीय उदाहरण है।
समाज का सामाजिकता, असामाजिकता बन चुका है|