द मीडिया टाइम्स- मोहित श्रीवास्तव
डेस्क: कोई “फखरूद्दीन अली अहमद” बनता है तो कोई, “जगदीप धनखड़” और “भगत सिंह कोश्यारी”। ऐसे बहुत सारे उदाहरण है जो यह बताते हैं की, भारत में “राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, उपराज्यपाल” इत्यादि पद, एक “बोझ/कलंक” बन चुका है।
संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र “भारत”, “संसदीय प्रणाली” के आधार पर कार्य करता है। यहां, “विधायक/सांसद” चुनें जाते हैं और फिर ये लोग, चुनें गए लोगों में से, अपने नेता का चुनाव करते हैं और वही, “मुख्यमंत्री/प्रधानमंत्री” बनता है। अर्थात, अपने देश भारत में, प्रधानमंत्री का चुनाव, जनता के द्वारा, प्रत्यक्ष रूप से नहीं होता है। लेकिन, एक दुसरे लोकतांत्रिक प्रक्रिया, “राष्ट्रपति प्रणाली” में, जनता, सीधे राष्ट्रपति के लिए मतदान करती है और “संयुक्त राज्य अमेरिका” इसका एक उदाहरण है। और भी, अलग-अलग प्रकार की प्रणालियां होती हैं।
मैं, यहां पर जो राष्ट्रपति, राज्यपाल इत्यादि की बात कर रहा हूं वो भारत वाले लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए है। यहां, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल इत्यादि का चुनाव, “राजनीतिक दलों” के द्वारा होता है। और यहीं पर समस्या उत्पन्न होता है। चूंकि, इन पदों के व्यक्ति का चुनाव, राजनीतिक दलों के द्वारा होता है इसलिए, इस पद पर बैठा व्यक्ति, अपनी निष्ठा, लोकतंत्र में नहीं दिखाते हुए, अपने राजनीतिक दल की ओर दिखाता है। यह बात, अभी तक के लगभग, सभी व्यक्ति पर लागू होता है जो इस पद पर बैठे हैं। हालांकि “कुछ अपवाद” भी दिखते हैं।
सभी राजनीतिक दल, अपने अनुसार इन पदों के व्यक्ति का चुनाव करती है और विपक्षी दल इसका विरोध करते हैं। और फिर जब विपक्षी, पक्ष में आ जाते हैं, सरकार चलाते हैं तो जो पहले सरकार चला रहे थें और अब विपक्ष में आ चुके हैं, वो इसका विरोध करते हैं। अर्थात, यहां “स्वार्थशास्त्र और अर्थशास्त्र” का चरम प्रभुत्व दिखाई देता है।
अंत में मैं यही लिखूंगा की, या तो इन पदों के व्यक्ति का चुनाव, सीधा, जनता के मतदान के आधार पर होना चाहिए या फिर:-
“राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल” इत्यादि पद “समाप्त” होने चाहिए